सोमवार, 14 मई 2018

कुछ अंकुर फूटे मन मे

कुछ अंकुर फूटे इस मन में ।
 शब्दों के सृजन सघन वन में ।

  सींच रहा हूँ भावों के लोचन से,
  भरता अंजुली शब्द नयन में ।

   अस्तित्व हीन रहे वो अंकुर ,
  शब्दों के इस बियाबान वन में ।

 घुट कर रह जाते अक्सर जो ,
 अर्थो की अक्सर उलझन में ।

  वृक्ष घने जिसके सर पर ,
   कैसे पहुँचे वो गगन में ।

अंकुर फूटे कुछ इस मन में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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