रविवार, 13 मई 2018

माँ

खोकर अपने ख़्याल सारे ।
  बस एक ख़्याल पाला था ।

   हर वक़्त हाथ में उसके ,
 औलाद के लिए निवाला था ।

 रूठता जो कोई क़तरा ,
 जिगर का कभी उससे ।

  निगाहों ने उसकी ,
 तब समंदर उछाला था ।

 क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
 हर क़तरे को उसने सम्हाला था ।

 न थी जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला था ।

 थी वो खेर ख़्वाह सबकी ,
 खुदा ने जिसे जमीं उतारा था ।

 रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
 मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।

 नज़र आती दुआओं में आज भी ,
 उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...