शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

सत्ता की चाहत

उबल रहा पयोधी ,
 अपने ही जल से ।

खेल रहे आज सभी ,
अपने ही कल से । 

सत्ता की चाहत ने ,
कैसा स्वांग रचाया है ।

लूट रहे सभी यहाँ ,
भाई भाई को छल से ।

प्रश्न वही अधूरे अब भी ,
 प्रश्न अधूरे है जो कल से ।

सिद्ध वही प्रसिद्ध वही है ,
शिखर पता है जो छल से ।

 भोर लिए दिनकर आता है  ,
 मिलता साँझ तले तल से ।

 तारों की झिलमिल छुपती है ,
  नव प्रभात से मिल के ।

 भानु क्यों इतना तपता है  ,
 ढलता तू भी जल जल के ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 5(136)

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