उबल रहा पयोधी ,
अपने ही जल से ।
खेल रहे आज सभी ,
अपने ही कल से ।
सत्ता की चाहत ने ,
कैसा स्वांग रचाया है ।
लूट रहे सभी यहाँ ,
भाई भाई को छल से ।
प्रश्न वही अधूरे अब भी ,
प्रश्न अधूरे है जो कल से ।
सिद्ध वही प्रसिद्ध वही है ,
शिखर पता है जो छल से ।
भोर लिए दिनकर आता है ,
मिलता साँझ तले तल से ।
तारों की झिलमिल छुपती है ,
नव प्रभात से मिल के ।
भानु क्यों इतना तपता है ,
ढलता तू भी जल जल के ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 5(136)
अपने ही जल से ।
खेल रहे आज सभी ,
अपने ही कल से ।
सत्ता की चाहत ने ,
कैसा स्वांग रचाया है ।
लूट रहे सभी यहाँ ,
भाई भाई को छल से ।
प्रश्न वही अधूरे अब भी ,
प्रश्न अधूरे है जो कल से ।
सिद्ध वही प्रसिद्ध वही है ,
शिखर पता है जो छल से ।
भोर लिए दिनकर आता है ,
मिलता साँझ तले तल से ।
तारों की झिलमिल छुपती है ,
नव प्रभात से मिल के ।
भानु क्यों इतना तपता है ,
ढलता तू भी जल जल के ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
डायरी 5(136)
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