वो किसी के लिए तो वफ़ादार है ।
मेरे क़ातिल तो यहाँ मेरे ही यार है ।
नही आब से भरे अब्र कोई ,
ये तो धुएँ के ही सब गुवार है ।
गढ़ते रहे कशीदे शान में कभी ,
अब जरा भी नही इख़्तियार है ।
छूकर बुलंदियाँ आसमाँ की ,
नशा शोहरत उन्हें बेशुमार है ।
खा गए कसमें दिल-ओ-जान की,
आज तल्ख़ निग़ाह-ऐ-इज़हार है ।
घेरता रहा वक़्त सलवटों से चेहरा
यूँ हुआ वक़्त से अब एक करार है ।
खिंची निगाहें सख़्त अंदाज़ है ।
"निश्चल" क्युं जमाने से इंकार है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
आज का परिदृश्य
डायरी 5(135)
मेरे क़ातिल तो यहाँ मेरे ही यार है ।
नही आब से भरे अब्र कोई ,
ये तो धुएँ के ही सब गुवार है ।
गढ़ते रहे कशीदे शान में कभी ,
अब जरा भी नही इख़्तियार है ।
छूकर बुलंदियाँ आसमाँ की ,
नशा शोहरत उन्हें बेशुमार है ।
खा गए कसमें दिल-ओ-जान की,
आज तल्ख़ निग़ाह-ऐ-इज़हार है ।
घेरता रहा वक़्त सलवटों से चेहरा
यूँ हुआ वक़्त से अब एक करार है ।
खिंची निगाहें सख़्त अंदाज़ है ।
"निश्चल" क्युं जमाने से इंकार है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
आज का परिदृश्य
डायरी 5(135)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें