शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

आज का परिदृश्य

वो किसी के लिए तो वफ़ादार है ।
मेरे क़ातिल तो यहाँ मेरे ही यार है ।

  नही आब से भरे अब्र कोई ,
  ये तो धुएँ के ही सब गुवार है ।

गढ़ते रहे कशीदे शान में कभी ,
अब जरा भी नही इख़्तियार है ।

 छूकर बुलंदियाँ आसमाँ की ,
 नशा शोहरत उन्हें बेशुमार है ।

खा गए कसमें दिल-ओ-जान की,
आज तल्ख़ निग़ाह-ऐ-इज़हार है ।

 घेरता रहा वक़्त सलवटों से चेहरा
 यूँ हुआ वक़्त से अब एक करार है ।

   खिंची निगाहें सख़्त अंदाज़ है ।
 "निश्चल" क्युं जमाने से इंकार है ।
  
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

आज का परिदृश्य
डायरी 5(135)

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...