रविवार, 3 मार्च 2019

मुक्तक 595/600

595
सफ़र फिर ख़ामोश रहा ।
 इतना ही पर होश रहा ।
 कदम धरे गिन गिन कर ,
 रिश्तों में हर जोश रहा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
596

जितना मैं मगरूर रहा ।
उतना खुद से दूर रहा ।
नफ़रत के प्याले भरकर ,
मदहोशी में मैं चूर रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
597

कलम थम सी गई है ।
स्याही जम सी गई है ।
एक गुबार है वक़्त का ,
चाहत *खम* सी गई है ।
    ..."निश्चल"@...
                  *खम/घुमाव*
598

बे-वक़्त बे-करार दिल ।
तूफ़ां से टकराता साहिल ।
छोड़ती किनारा दरिया में कश्ती ,
नाख़ुदा हुआ जो हांसिल ।
       ..."निश्चल"@...
599

फ़ासला-ए-मंज़िल बेहिसाब हो ।
 होंसला मगर लाजवाब हो।
 तू जीतकर ख़ुद को ख़ुद से ,
   ख़ुद का ही तू शहज़ाद हो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
600
 तुम देखो कुछ इस तरह ।
 जुस्तजू न रहे जिस तरह ।

 न रहे याद फ़रियाद भी कोई ,
 हाथ दुआ उठे कुछ उस तरह ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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