हर कोई खुद में ही , खुश रहा है ।
हर कोई इतना ही , कुछ रहा है ।
हँसती हैं निगाहें , सामने दुनियाँ के ,
अश्क़ अश्क़ , पलकों में छुप रहा है ।
गुजरता वक़्त के साथ, नज़्र फेरकर ,
गैरों सा ही तो हर ,सुख दुख रहा है ।
जो जला शामों में, सहर के वास्ते ,
भोर तले वो , चराग़ भी बुझ रहा है ।
निकला शान से, अपने उजाले लेकर ,
वो आफ़ताब, शाम दामन में छुप रहा है ।
गढ़ता रहा , हर नज़्म शिद्दत से वो ,
"निश्चल" बुत सा , पर हर लफ्ज़ रहा है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(128)
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