बुधवार, 6 मार्च 2019

हर कोई खुद में ही , खुश रहा है ।


हर कोई खुद में ही , खुश रहा है ।
हर कोई इतना ही , कुछ रहा है ।

हँसती हैं निगाहें , सामने दुनियाँ के ,
अश्क़ अश्क़ , पलकों में छुप रहा है ।

गुजरता वक़्त के साथ, नज़्र फेरकर ,
गैरों सा ही तो हर ,सुख दुख रहा है ।

जो जला शामों में, सहर के वास्ते ,
भोर तले वो , चराग़ भी बुझ रहा है ।

 निकला शान से, अपने उजाले लेकर ,
 वो आफ़ताब, शाम दामन में छुप रहा है ।

  गढ़ता रहा , हर नज़्म शिद्दत से वो ,
"निश्चल" बुत सा , पर हर लफ्ज़ रहा है ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(128)

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