606
मत कर तू शक़ उसके वुजूद पर ।
कायम है जहां जिसके खुलूस पर ।
खुलूस /सच्चाई
607.....
नियत नियति निरंतर,
काल तले दिन करता अंतर ।
कर्ता हर्ता सृष्टि का ,
महाकाल शिव शंकर ।
608.. ...
जो अजब है गजब है ।
वो ही तो एक रब है ।
है नही कहीं कुछ भी ,
और एक वो ही सब है ।
609.......
सृष्टि के कण कण में,
ईस्वर का भान होता है ।
न हो मन में अभिमान ,
तभी यह ज्ञान होता है ।
चला आता है चला जाता है ,
घरौंदे बदल कर ,
देह के भीतर यह जीव भी ,
तो मेहमान होता है ।
610......
तुम देखो कुछ इस तरह ।
जुस्तजू न रहे जिस तरह ।
न रहे याद फ़रियाद भी कोई ,
उठे हाथ दुआ कुछ उस तरह ।
611......
हाँ मैं कुछ लिख न सका ।
वक़्त के साथ टिक न सका
बैठा रहा शाम सड़क पर ,
हालात हाथ बिक न सका ।
612.....
थोड़ा सा आशीष चाहिए ।
अपनो से सीख चाहिए ।
नही चाहता मैं कुछ भी ,
बस इतनी ही भीख चाहिए ।
613.......
सिमट रहे शब्द सब ,
खो रहीं परिभाषाएं ।
रात गुजारी नैनो में ,
भोर तले अलसाई आशाएँ ।
....
614
आया तू जिसे जीत कर ।
आज तू उसे अतीत कर ।
भूल जा गुजरे कल को ।
बस तू खुशी व्यतीत कर ।
..
615
कुछ कब होता है ।
कुछ कब होना है ।
छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।
गूढ़ नही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
-----
616
हे अज्ञान ज्ञान के बासी ।
तू खोज रहा मथुरा काशी ।
तुझे श्याम मिलेंगे मन भीतर ,
तेरा मन देखे जिसकी झांकी ।
....
617
एक धूल धरा बिछौना सा ।
कुछ पाना कुछ खोना सा ।
अपने ही तापों में तपकर ,
निखरा वो कंचन सोना सा ।
....
618
जो पिघलता चला है ।
वही तो बदलता चला है ।
तपकर ताप में अपने ही ,
काँच भी फौलाद में ढला है ।
....
619
कर्ज़ कोई माफ करता है ।
कोई खैरात हाथ भरता है ।
जाने कैसा है यह सबेरा ,
दिन उजाला रात गढ़ता है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 3
मत कर तू शक़ उसके वुजूद पर ।
कायम है जहां जिसके खुलूस पर ।
खुलूस /सच्चाई
607.....
नियत नियति निरंतर,
काल तले दिन करता अंतर ।
कर्ता हर्ता सृष्टि का ,
महाकाल शिव शंकर ।
608.. ...
जो अजब है गजब है ।
वो ही तो एक रब है ।
है नही कहीं कुछ भी ,
और एक वो ही सब है ।
609.......
सृष्टि के कण कण में,
ईस्वर का भान होता है ।
न हो मन में अभिमान ,
तभी यह ज्ञान होता है ।
चला आता है चला जाता है ,
घरौंदे बदल कर ,
देह के भीतर यह जीव भी ,
तो मेहमान होता है ।
610......
तुम देखो कुछ इस तरह ।
जुस्तजू न रहे जिस तरह ।
न रहे याद फ़रियाद भी कोई ,
उठे हाथ दुआ कुछ उस तरह ।
611......
हाँ मैं कुछ लिख न सका ।
वक़्त के साथ टिक न सका
बैठा रहा शाम सड़क पर ,
हालात हाथ बिक न सका ।
612.....
थोड़ा सा आशीष चाहिए ।
अपनो से सीख चाहिए ।
नही चाहता मैं कुछ भी ,
बस इतनी ही भीख चाहिए ।
613.......
सिमट रहे शब्द सब ,
खो रहीं परिभाषाएं ।
रात गुजारी नैनो में ,
भोर तले अलसाई आशाएँ ।
....
614
आया तू जिसे जीत कर ।
आज तू उसे अतीत कर ।
भूल जा गुजरे कल को ।
बस तू खुशी व्यतीत कर ।
..
615
कुछ कब होता है ।
कुछ कब होना है ।
छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।
गूढ़ नही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
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616
हे अज्ञान ज्ञान के बासी ।
तू खोज रहा मथुरा काशी ।
तुझे श्याम मिलेंगे मन भीतर ,
तेरा मन देखे जिसकी झांकी ।
....
617
एक धूल धरा बिछौना सा ।
कुछ पाना कुछ खोना सा ।
अपने ही तापों में तपकर ,
निखरा वो कंचन सोना सा ।
....
618
जो पिघलता चला है ।
वही तो बदलता चला है ।
तपकर ताप में अपने ही ,
काँच भी फौलाद में ढला है ।
....
619
कर्ज़ कोई माफ करता है ।
कोई खैरात हाथ भरता है ।
जाने कैसा है यह सबेरा ,
दिन उजाला रात गढ़ता है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 3
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