बुधवार, 6 मार्च 2019

ज़िस्म जुबां लफ्ज़ संग न था

ज़िस्म जुबां लफ्ज़ संग न था ।
 हुस्न जुबां निग़ाह तंग न था ।

 मचलता था दरिया आगोश में,
 अशआर ग़जल बे-रंग न था ।

कह गया बात मुसलसल वो ,
नज़्म कहने का उसे ढंग न था ।

बिखरे थे जो अल्फ़ाज़ सभी ,
वो कोई हालात-ए-जंग न था ।

जलती रही शमा ख़ुद आप ही ,
जलने को साथ कोई पतंग न था ।

 ख़ामोश थे सभी महफ़िल में ,
"निश्चल" कही कोई उमंग न था ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(127)

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