शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 394/399

394
पूछने चला था अँधेरो से वो ,
साथ उजालों ने तुझे क्या दिया ।
जो समेट कर दामन में अपने ,
उजालों को बिखर जाने दिया ।
395 
परवाह नही मान की सम्मान की ।
फ़िक़्र है मुझे बस स्वाभिमान की ।
मैं नही मांगता दुनियाँ से कुछ भी,
उसे तो फ़िक़्र है दोनों जहान की ।
396
यह निश्चल नयन सजल से ।
बह जाते थोड़े से अपने पन से।
कह जातीं यह आँखे सब कुछ ,
बरसी जब जब सावन बन के ।
397
यह आसमां रंग बदलता धीरे धीरे ।
चाँद सितारों संग चलता धीरे धीरे ।
दूर क्षितिज से दूर क्षितिज तक ,
सूरज जलता फिर ढलता धीरे धीरे।
399
मन समझे मन की भाषा ।
नयन पढ़ें नैनन की भाषा ।
न कोई आशा न अभिलाषा,
जीवन की इतनी सी परिभाषा।

वीििएक दुबेवव

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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