गुरुवार, 7 जून 2018

मुक्तक

चकित हिमालय थकता सागर है ।
 सुप्त चाँदनी थमता दिनकर है ।
 रीत रही गागर आशाओं की ,
 बून्द बून्द रिसता दृग सर है । (अश्रु जल)
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

हालात ने ठगा वक़्त ने छला है ।
 उम्मीद को ,उम्मीद से गिला है ।
 हारते रहे जीता कर जिनको ,
 जाने कैसा यह  सिलसिला है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

निखरता रहा बड़े शौक से ।
 बिखरता रहा मैं शोक में ।
 कह गया था वो आऊंगा ,
 सच मान बैठा मैं जोश में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

शकुनि निकला बिसात बिछाने को ।
मांझ रहा पांसे अपने पलटाने को ।
जंघा ठोके दुर्योधन आतुर दुःशासन
 पांचाली को ले कर आने को ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...




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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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