424
ज़ीवन का गणित
जुड़ता घटता प्रति पल कुछ न कुछ ।
चलते रहते गुणा भाग भाग भाग में ।
अंत यही बस ज़ीवन प्रमेय का ,
शून्य शेष रहा बस अंत हाथ में ।
....
425
पर्दे खुले से कुछ नही खुले से ।
दर्द मिले से कुछ नही गिले से ।
ज़िंदगी के ये सिलसिले से ।
हारकर ज़िंदगी से मिले से ।
...
426
यह आकाश घनेरा है ।
दूर क्षितिज तक फैला है ।
पाया संग सितारों का ,
फिर भी हरदम अकेला है ।
.... विवेक दुबे....
ज़ीवन का गणित
जुड़ता घटता प्रति पल कुछ न कुछ ।
चलते रहते गुणा भाग भाग भाग में ।
अंत यही बस ज़ीवन प्रमेय का ,
शून्य शेष रहा बस अंत हाथ में ।
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425
पर्दे खुले से कुछ नही खुले से ।
दर्द मिले से कुछ नही गिले से ।
ज़िंदगी के ये सिलसिले से ।
हारकर ज़िंदगी से मिले से ।
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426
यह आकाश घनेरा है ।
दूर क्षितिज तक फैला है ।
पाया संग सितारों का ,
फिर भी हरदम अकेला है ।
.... विवेक दुबे....
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