शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 424/426

424
ज़ीवन का गणित 
 जुड़ता घटता प्रति पल कुछ न कुछ ।
 चलते रहते गुणा भाग भाग भाग में । 
 अंत यही बस ज़ीवन प्रमेय का ,
 शून्य शेष रहा बस अंत हाथ में ।
.... 
425
पर्दे खुले से कुछ नही खुले से ।
 दर्द मिले से कुछ नही गिले से ।
 ज़िंदगी के ये सिलसिले से ।
 हारकर ज़िंदगी से मिले से ।
  ... 
426
यह आकाश घनेरा है ।
 दूर क्षितिज तक फैला है ।
 पाया संग सितारों का ,
 फिर भी हरदम अकेला है ।
.... विवेक दुबे....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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