शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 401/405

401
न हारना होंसला कभी ,
मंजिल अभी बाँकी है ।
मुक़ाम अभी बाँकी है ।
सफर अभी बाँकी है ।
402
रौशनी की तलाश में चला हूं मैं ।
यह अंधेरे छंट जाएंगे एक दिन ।
उजाले भी होंगे कहीं न कहीं 
अंधेरे भी गुम होंगे कहीं न कहीं ।
403
यह नील गगन अनंत विस्तार लिए ।
विधि के आगे विधि का श्रृंगार लिए ।
खोज रहा है जैसे ख़ुद को ख़ुद में
अपने ही न होने का अहसास लिए।
404
अनंत अंतरिक्ष को खोजता मैं ।
कौन हूं क्यों हूं यही सोचता मैं ।
इस स्वार्थ से परे भी है क्या कुछ
यही प्रशन ख़ुद से ख़ुद पूछता मैं ।
405
ख़ुद से ख़ुद का द्वंद था ।
पर थोड़ा सा प्रतिवंध था ।
चलता था उजियारों संग 
फिर भी अँधियारो का संग था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..






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