शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 406/409

406
शरद सुधाकर भरा सुधा जल से ।
उज्वल धवल किरणो संग से ।
छाया अपने पूरे यौवन संग
 छलकाता सोम पीयूष गगन से ।
407 
 छंटती है धुंध कोहरे हटते हैं ।
खिली धूप से चेहरे निखरते है ।
चलते छोड़कर राह पुरानी ,
नई राह होंसले आगे बढ़ते है ।
408
आज हर अजनबी भी ,
जाना पहचाना लगता है ।
बजह फकत इतनी सी ,
 उसके ग़जल कहने का,
 अंदाज पुराना लगता है ।
409
सारे किस्से किताब हुए ।
यूँ जिंदगी के हिसाब हुए ।
दिल ने चाहा समंदर को ,
 दरिया भी न हम राज हुए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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