शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 396/400

396
ज्यों ज्यों अक़्स छुपाया है ।
त्यों त्यों अंधियारा छाया है ।
ढूंढते है जिन्हें तन्हाई में हम,
वो मेरा ही हम साया है ।
397
शब्दों ने फ़र्ज निभाया था ।
भावों ने साथ निभाया था ।
दे न सका जुबां मगर वो ,
 कहते बार बार लड़खड़ाया था ।
398
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
 सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
 क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
399
यहां वहां जो घटता है ।
आस पास जो दिखता है ।
यह मन वही तो लिखता है ।
किंतु सत्य कहां बिकता है ।
400
तुम अक़्स बन सँवारो मुझको ।
मेरी गुस्ताखियों से उबारो मुझको ।
क़तरा हुन ओस की बूंद का मैं ,
बहता हुआ दरिया बना दो मुझको ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

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