शनिवार, 9 जून 2018

मुक्तक 414/419

414
तस्वीरों को खींचता आदमी ।
वक़्त को भींचता आदमी ।
सहजता आज को क्यों ,
आज से ही रीतता आदमी ।
415
तुम लिखो अपना ।
कुछ कहो अपना ।
सत्य नही जीवन ,
जीवन एक सपना।
416
कुछ पल ठहर तो सही ।
कुछ वक़्त गुजार तो सही ।
होगा फैसला खुद-बा-खुद ,
क्या है सही क्या न सही ।
417
नीर नीर नदिया सा तू पीता जा ।
"निश्चल" सागर सा तू जीता जा ।
मचलें खेलें लहरें तेरे दामन में ,
दामन को अपने भिंगोता जा ।
418
अतृप्ति यह भावों की ।
संतृप्ति यह हालातों की ।
आदि अनादि की परिधि से ,
सृष्टि चलती विस्तारों की ।
416
जो न मिल सका गम न कर ।
जो मिल सका उसे कम न कर ।
जो मिला वो कम नही ,
 जो न मिला कोई गम नही ।
419
वो न रहा यह भी गुजर जाएगा ।
वक़्त तो वक़्त ही कहलाएगा ।
डूबकर भी समंदर में दरिया ,
तासीर-ऐ-आब कहलाएगा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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