रविवार, 14 फ़रवरी 2021

मुक्तक 966/70

 966

इंसान बदल जाता है , या वक़्त बदलता है ।

ये फैसला भी क्यों , वक़्त पर टलता है ।

बदलती है करबट , धरा ही सामने जिसके ,

वो सूरज तो ठहरा है , लगता जो चलता है ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

967

समझ सका न मैं ज़िंदगी तेरी चाल को ।

हुनर नही मुझ में देने अपनी मिशाल को ।

समझ ही नही रही जब मुझ को मेरी ही ,

समझेगा क्या जमाना तब मुझ बेहाल को ।

...."निश्चल"@...

968

  जीत सका न मैं उसके छल के आगे ।

 हार गया आज सभी मैं कल के आगे ।

 सब अपनी अपनी जीतो की खातिर ,

  जीत मेरी मेरे आपने ही मुझसे माँगे ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@...

969

हँसा कर रुलाने का सबब भी बता जाते ।

अपने अहसानों की तलब भी बात जाते ।

 खो गए पँख परवाज के उड़ने से पहले ,

 आसमां अहसास अजब भी बता जाते ।

          ..."निश्चल"@..

970

ख़्वाबों के तसब्बुर में कुछ जज्बात लपेटे हुए। 

अहसासों के तन पे वक़्त के हालात लपेटे हुए ।

गुज़र गए इस बारिश से उस बारिश तक ,

 आँखों में अश्कों की सौगात लपेटे हुए ।

       ......विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 7


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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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