966
इंसान बदल जाता है , या वक़्त बदलता है ।
ये फैसला भी क्यों , वक़्त पर टलता है ।
बदलती है करबट , धरा ही सामने जिसके ,
वो सूरज तो ठहरा है , लगता जो चलता है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
967
समझ सका न मैं ज़िंदगी तेरी चाल को ।
हुनर नही मुझ में देने अपनी मिशाल को ।
समझ ही नही रही जब मुझ को मेरी ही ,
समझेगा क्या जमाना तब मुझ बेहाल को ।
...."निश्चल"@...
968
जीत सका न मैं उसके छल के आगे ।
हार गया आज सभी मैं कल के आगे ।
सब अपनी अपनी जीतो की खातिर ,
जीत मेरी मेरे आपने ही मुझसे माँगे ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@...
969
हँसा कर रुलाने का सबब भी बता जाते ।
अपने अहसानों की तलब भी बात जाते ।
खो गए पँख परवाज के उड़ने से पहले ,
आसमां अहसास अजब भी बता जाते ।
..."निश्चल"@..
970
ख़्वाबों के तसब्बुर में कुछ जज्बात लपेटे हुए।
अहसासों के तन पे वक़्त के हालात लपेटे हुए ।
गुज़र गए इस बारिश से उस बारिश तक ,
आँखों में अश्कों की सौगात लपेटे हुए ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 7
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