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उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।
सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।
सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।
आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।
हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।
चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।
ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।
ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी
उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....
डायरी 7
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