शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

उजली साँझ भी



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उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।


 सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।

 सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।


 आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।

  हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।


  चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।

  ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।

 

  ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी

   उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....

डायरी 7

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