मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

उसमे भी तो जीवन था ।

उसमे भी तो जीवन था ।
जीव नही जिस तन था ।

शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।

नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।

पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।

पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।

"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
 गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

अकिंचन/महत्वहीन

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