उसमे भी तो जीवन था ।
जीव नही जिस तन था ।
शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।
नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।
पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।
पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।
"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
अकिंचन/महत्वहीन
जीव नही जिस तन था ।
शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।
नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।
पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।
पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।
"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
अकिंचन/महत्वहीन
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