जो कुछ रहा , वो न कुछ रहा ।
वो फक़त इतना, ही कुछ रहा ।
सिमेटकर , फांसले दिल के ,
ख़ामोश निग़ाह , जो ख़ुश रहा ।
.....
जो सँग संग रहा ।
वो दिल तंग रहा ।
उन चाहतों का ,
बा-खूब ढंग रहा ।
बे-खोफ निग़ाहों का ,
ये मशहूर रंग रहा ।
सुलह की खातिर ,
करता इरादा जंग रहा ।
इंतज़ार इख़्तियार का ,
इज़हार बे-रंग रहा ।
एक निग़ाह-ए-सर्द से ,
"निश्चल" जलता अंग रहा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें