जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।
एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।
होश निग़ाहों से दुनियाँ देखो ,
हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।
फूल चमन में खूब खिले देखो ,
अंग अंग पर रंग, बे-बेरंग चढ़ा है ।
गले मिलें सब आँख मींचकर ,
साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।
अपनो की अपनी दुनियाँ में ,
अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।
काट रहे है मानव मानवता को
मजहब धर्म ही जब रहा बड़ा है ।
रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,
ये राष्ट्र आज भी वहीं खड़ा है ।
ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,
"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।
होश निग़ाहों से दुनियाँ देखो ,
हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।
फूल चमन में खूब खिले देखो ,
अंग अंग पर रंग, बे-बेरंग चढ़ा है ।
गले मिलें सब आँख मींचकर ,
साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।
अपनो की अपनी दुनियाँ में ,
अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।
काट रहे है मानव मानवता को
मजहब धर्म ही जब रहा बड़ा है ।
रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,
ये राष्ट्र आज भी वहीं खड़ा है ।
ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,
"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें