बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

मुक्तक 839/843

839
हर नया कल आज सा रहा  ।
 ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
 डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
 दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
...
840
मिलता ही रहा दर्या को ,
 साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
 हाथ किनारे का हरदम ।
..
841
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
.....
 842
रिश्ते नातों के कागज पर ,
 उम्मीदों की छोटी सी रेखा है ।
 सूरज रंग बदलता धीरे-धीरे,
 आते कल को किसने देखा है ।
.......
843
बस एक बार जो तू ठान ले ।
 कैसे कहूँ के तू हार मान ले ।
जीत ले तू अपने ही आपको ,
 खुद में सारी कायनात जान ले ।
..... 


..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

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