835
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
टूटे अरमान के मोती ,
जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
.....
837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।
बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
....
838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
टूटे अरमान के मोती ,
जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
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837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।
बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
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838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3
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