बुधवार, 30 अक्तूबर 2019

मुक्तक 835/838

835
 कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
 कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
 दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
 वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
836
कांच का सामान हुआ ।
 ज़ज्ब अरमां हैरान हुआ ।
   टूटे अरमान के मोती ,
   जर्रा जर्रा वीरान हुआ ।
 .....
837
हां मुझे जरा वक़्त चाहिये ।
एक मुक़ामिल तख़्त चाहिये ।

बदल सके रिवायतें दुनियाँ ,
फैसला एक सख़्त चाहिये ।
....
838
गुफ़्तगू यूँ बदलती रही ।
निग़ाह नज़्र टलती रही ।
न आया बज़्म में कोई ,
शमा महफ़िल जलती रही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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