दुर्मिल सवैया
चलती इक रात सदा भरने ,
नभ का आँचल अपने तम से ।
जगती रजनी सजती क्षितिज़ा ,
मिलने चलती अपने नभ से ।
सजता नव रूप निशाकर का,
खिलता भरता तन योवन से ।
घटता बढ़ता नित ही विधु भी,
सजता नभ ही तारक तन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
चलती इक रात सदा भरने ,
नभ का आँचल अपने तम से ।
जगती रजनी सजती क्षितिज़ा ,
मिलने चलती अपने नभ से ।
सजता नव रूप निशाकर का,
खिलता भरता तन योवन से ।
घटता बढ़ता नित ही विधु भी,
सजता नभ ही तारक तन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
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