बुधवार, 29 अगस्त 2018

माता की व्यथा

माता की व्यथा ।
कभी न बनी कथा ।
जो लिख गए पुराण,
 माँ को न मिला वो स्थान।
जिसकी वो अधिकारी थी ।
हाँ वो तो एक दुखियारी थी ।
 क्या पाया की आशा से ,
 कोसों दूर रही बेचारी सी ।
 बस करती अपना काम ,
बिन जताए कोई अहसान ।
 कर के सबको आगे ,
 अपना सब कुछ है बांटे ।
बांट दिया तन मन को ,
कर दिया हवन जीवन को ।
 सींच  लहू से अपने ,
 आँगन की फुलवारी ।
करती अनन्त यात्रा की तैयारी ,
बस लेकर इस आशा को ,
फूलों के हर दम खिलने की ,
 एक अभिलाषा को ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(105)
Blog post 29/8/18

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