बुधवार, 29 अगस्त 2018

टूटती क़सम किनारों की

टूटती कसम किनारों की ।
छूटती पतवार सहारों की ।

है बेख़ौफ़ ना-नाख़ुदा वो,
डूबती कश्ती सहारों की ।

 है तर-ब-तर समंदर यूँ तो ,
 चाहतें वारिश-ए-बहारों की ।

 है सींचती रही अश्क़ दामन को ,
 चाहत नहीं निग़ाह नजारों की ।

 है रूठकर चला सफ़र पर वो ,
 कैसी नियत वक़्त की बयारों की ।

 है देखता नही मुड़कर जो ,
 चाहत नही कोई इशारों की ।

 है चल पड़ा आखिर वो "निश्चल" ,
चाहत नहीं  जिसे राहों की ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(102)

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