रविवार, 18 नवंबर 2018

उसने कहा तुनक कर ,

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उसने कहा तुनक कर ,
  तुम क्या लिखते हो ।

  मैंने कहा हँसकर ,
 मैं क्या तुम लिखते हो ।

 गढता हूँ जब शब्दों को ,
 तब तुम ही तो दिखते हो ।

तुम्हे सहज रहा हूँ शब्दो में ,
जब तुम मुझसे मिलते हो ।

 कशिश बड़ी है रिश्तों की ,
 साँस साँस तुम तपते हो ।

कांप रहे उघड़े तन को ,
अचकन से तुम ढंकते हो ।

पाता एक आहट ताप भरी ,
शब्दों में तुम जब झांकते हो ।

कहता हूँ शब्द शब्द तुझको ,
मेरे शब्दों में तुम बसते हो ।

लिखता तुझको अक्षर अक्षर ,
हर अक्षर में तुम सजते हो ।

स्नेहिल सी एक ड़ोर बंधी है ,
तब ही तुम मुझपर हँसते हो ।

 उसने कहा तुनक कर ,
  तुम क्या लिखते हो ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(31)

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