रविवार, 18 नवंबर 2018

मैं ढूंढता रहा आप को आप में ।

616
मैं ढूंढता रहा आप को आप में ।
मैं मिलता नही निग़ाह आब में ।
ठहरी रही शबनम हरी दूब पर ,
डुबो ज़िस्म अपना आफ़ताब में ।

राहें रहीं सब व्यर्थ बेकार में ।
चाहत रही नही जब राह में ।
चुकाता रहा मोल हर बात का ,
 ज़िन्दगी रही मगर उधार में ।

 उतर कर कलम खोता रहा,
 खुद को खुद अपने आप में ।
जज़्बात की ऊसर जमीं पर ,
वोता रहा जरखेज अल्फ़ाज़ मैं ।

(जरखेज-उपजाऊ/उर्वर)

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी6(28)

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...