रविवार, 18 नवंबर 2018

गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

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एक धूप सुनहरी पावन सी ।
गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

फुदक रही आँगन कौने कौने ,
लगतीं कितनी मन भावन सी ।

 बैठ चहक उठी मुँडेर तले ,
बहती है सरिता गायन की ।

रचतीं नित नित गीत नए ,
गुंजित हर राग सुहावन सी ।

भींग रहा है हर्षित अन्तर्मन ,
रिमझिम बूंदे ज्यों सावन की ।

पुष्प खिले वृक्ष पलाश पर ,
अबीर उड़ी हो फागन की ।

बीत रहे पल पँख लगाकर ,
बयार चली मस्त पवन सी ।

उड़ जाएंगी एक भुनसारे ,
आस अधूरी इस मन की ।

एक धूप सुनहरी पावन सी ।
गौर चिराईये मेरे आँगन की ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वो धूप सुनहरी आँगन सी ।
 प्रीत घनेरी मन भावन सी ।
एक प्रणय निवेदित चितवन ,
वो चँचल सजनी साजन की ।
..."निश्चल"@.
डायरी 6(25)


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