शनिवार, 24 नवंबर 2018

जीत टली है कब हारों से ।

फूटें कोंपल फिर शाखों से ।
शोले दहके बुझती राखों से ।

    शान्त नही है वो नीरनिधि ,
    लहरें टकरातीं किनारों से ।

मेघ मचलते अंबर आँगन में ,
बूंद बिखरती सौम्य फुहारों से ।

  दीप्त रहे जो शून्य साधकर , 
  हुई पराजित निशि तारों से ।

गिरता फिर उठ चल पड़ता ,
टकराता जो काल प्रहारों से ।

    चलता बस लक्ष्य मानकर ,
   जीत टली है कब हारों से ।

लक्ष्य नही है तब लक्ष्य कोई ,
चित्त चले जब आगे विचारों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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