शनिवार, 24 नवंबर 2018

खामोशियों को भी खर्च कर गया ।

खामोशियों को भी खर्च कर गया ।
मैं लम्हा लम्हा यूँ दर्ज कर गया ।

छुपाकर आब पलकों की कौर में ,
हर दर्द निग़ाह का अर्ज कर गया ।

उड़ेलकर सारी खुशियाँ दामन में ,
नज़्र निग़ाह को मैं फ़र्ज़ कर गया ।

चलकर उजालों से अँधेरो तक ,
साथ होंसलों का कर्ज़ कर गया ।

लगता रहा मरहम रहमत का ,
हर दर्द वक़्त सर्द कर गया ।

सोचता रहा खमोशी से "निश्चल" ,
क्यों मैं वक़्त वो हर्ज कर गया ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
(फ़र्ज/प्रार्थना/मान लेना)

डायरी 6(40)

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