बुधवार, 2 जनवरी 2019

तम छाया है ,

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तम छाया है ,दूर तलक नहीं कहीं छाँया है ।
अपनी ही आभा से दिनकर भी भरमाया है ।
अब ये कैसी टीस उभरती मन में मन की ,
इस मन ने जब मन से ही धोका खाया है ।

पथिक पग छूट रहे पथ पर चलते चलते ,
वो चिन्ह सभी पीछे छोड़ चला आया है ।

 इन राहो पर राहों की ही अभिलाषा में ,
 चौराहों ने इस राही को भी बहकाया है ।

 वो चलता है मंजिल की एक आस लिए ,
चलकर क्षितिज तले जो चलता आया है ।

सजता है भोर तले रवि संध्या से मिलने ,
पर साथ निशा तक वो कब चल पाया है ।

"निश्चल"तट छूकर बहता नीर नदी का ,
 तटनी ने तट को हरदम ही बहलाया है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(111)

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