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कैसे रहे आज युं , ज़िंदा कहीं कोई ।
है नही आज क्युं , शर्मिदा कहीं कोई ।
यूँ रहा मुक़म्मल,आसमां वास्ते उसके ,
है नही आजाद ,पर परिंदा कहीं कोई।
बैचेन रहा चैन , टूटते आज के लिये ,
शुकूँ ढूंढता शहर ,वाशिंदा कहीं कोई ।
लुटती है आबरू, ज़िस्म ओ ईमान की ,
है नही नज़्र निग़ाह, दरिंदा कहीं कोई ।
छीनकर उजाले, स्याह ले कर चले ,
देख रहा खमोश, चुनिंदा कही कोई ।
होती ही रही बसर, जिंदगी ज़िस्म से ,
करता रहा फ़र्ज़ हर्ज़, कारिंदा कहीं कोई ।
लिखता रहा जज्वात, जिस किताब में,
नादान ले गया वो, पुलिंदा कही कोई ।
हो न सका कायल, जहां मेरे उसूलों का ,
"निश्चल"क्युं करता रहा,निंदा कहीं कोई ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(109)
कैसे रहे आज युं , ज़िंदा कहीं कोई ।
है नही आज क्युं , शर्मिदा कहीं कोई ।
यूँ रहा मुक़म्मल,आसमां वास्ते उसके ,
है नही आजाद ,पर परिंदा कहीं कोई।
बैचेन रहा चैन , टूटते आज के लिये ,
शुकूँ ढूंढता शहर ,वाशिंदा कहीं कोई ।
लुटती है आबरू, ज़िस्म ओ ईमान की ,
है नही नज़्र निग़ाह, दरिंदा कहीं कोई ।
छीनकर उजाले, स्याह ले कर चले ,
देख रहा खमोश, चुनिंदा कही कोई ।
होती ही रही बसर, जिंदगी ज़िस्म से ,
करता रहा फ़र्ज़ हर्ज़, कारिंदा कहीं कोई ।
लिखता रहा जज्वात, जिस किताब में,
नादान ले गया वो, पुलिंदा कही कोई ।
हो न सका कायल, जहां मेरे उसूलों का ,
"निश्चल"क्युं करता रहा,निंदा कहीं कोई ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(109)
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