कहा कुछ नही कह गया बस यूँ ही ।
लिखा कुछ नही लिख गया बस यूँ ही ।
शायरी हो न सकी कभी फ़िक्र बन्दी में ,
हर शेर निकला दिल से बस यूँ ही ।
न चाहा था डूबना इस समंदर में कभी ,
मगर डूबकर उभर न सका बस यूँ ही ।
आईने तो टंगे है घर की हर दिवार पर मेरी ,
आईने से निग़ाह मिला न सका बस यूँ ही ।
गुमाँ बहुत था कामयाबियों पर मुझे मेरी,
नाकामयाबियों को झुठला न सका बस यूँ ही ।
चलता रहा ता-ज़िंदगी तलाश-ऐ-मंज़िल में ,
"निश्चल" मंज़िल न पा सका बस यूँ ही ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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