मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

चलता रहा बस यूँ ही

कहा कुछ नही कह गया बस यूँ ही ।
 लिखा कुछ नही लिख गया बस यूँ ही ।

शायरी हो न सकी कभी फ़िक्र बन्दी में ,
 हर शेर निकला दिल से  बस यूँ ही ।

 न चाहा था डूबना इस समंदर में कभी ,
 मगर डूबकर उभर न सका बस यूँ ही ।
 
आईने तो टंगे है घर की हर दिवार पर मेरी ,
 आईने से निग़ाह मिला न सका बस यूँ ही ।

 गुमाँ बहुत था कामयाबियों पर मुझे मेरी,
 नाकामयाबियों को झुठला न सका बस यूँ ही  ।
 
 चलता रहा ता-ज़िंदगी तलाश-ऐ-मंज़िल में ,
"निश्चल" मंज़िल न पा सका बस यूँ ही ।

    ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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