बुधवार, 21 फ़रवरी 2018

रास्ते बिन मुक़ाम थे

   वो रास्ते बिन मुक़ाम थे ।
  जो खत बिन पैगाम थे ।

  वो थे पास आज भी ,
  जो लिफ़ाफ़े बिन नाम थे ।

  जो सींचते थे गुलशन को ,
  वो बागवां भी न-ईमान थे ।

   कुछ टूटे हुए मकान से ,
   उजड़े हुए अरमान थे ।

  न थे टूटने के कोई निशां ,
 बस कदमों के निशान थे ।

 न था कोई वुजूद दुनियाँ में ,
 "निश्चल" इतनी ही पहचान थे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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