वो रास्ते बिन मुक़ाम थे ।
जो खत बिन पैगाम थे ।
वो थे पास आज भी ,
जो लिफ़ाफ़े बिन नाम थे ।
जो सींचते थे गुलशन को ,
वो बागवां भी न-ईमान थे ।
कुछ टूटे हुए मकान से ,
उजड़े हुए अरमान थे ।
न थे टूटने के कोई निशां ,
बस कदमों के निशान थे ।
न था कोई वुजूद दुनियाँ में ,
"निश्चल" इतनी ही पहचान थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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