सोमवार, 28 मई 2018

वक़्त नही था जब मुझ पर

वक़्त नही था जब मुझ पर ,
देख रहा था वो मुड़ मुड़कर ।
 पास नही जब कुछ खोने को ,
 मांग रहा कुछ मुझसे देने को ।

 कैसे दूँ मैं उत्तर कुछ जीवन पश्नो के ,
 बे-उत्तर रहने दो कुछ जीवन प्रश्नों को ।
  ढल रही है अब स्वर्णिम सन्ध्या ,
 खुश होने दो भोर तले दिनकर को ।

 ले मौन चला पथ पर यह जीवन ,
 होने दो मस्त किलोल जीवन को  ।
 इस सन्ध्या से उस सन्ध्या तक ,
 जगमग होने दो दिनकर को ।

जीवन की ख़ातिर खोने दो जीवन को ।
 जीवन का बस होने दो जीवन को ।
 सतत क्रम यही नियत नियति का ,
  नियत निरन्तर होने दो नियति को ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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