वक़्त नही था जब मुझ पर ,
देख रहा था वो मुड़ मुड़कर ।
पास नही जब कुछ खोने को ,
मांग रहा कुछ मुझसे देने को ।
कैसे दूँ मैं उत्तर कुछ जीवन पश्नो के ,
बे-उत्तर रहने दो कुछ जीवन प्रश्नों को ।
ढल रही है अब स्वर्णिम सन्ध्या ,
खुश होने दो भोर तले दिनकर को ।
ले मौन चला पथ पर यह जीवन ,
होने दो मस्त किलोल जीवन को ।
इस सन्ध्या से उस सन्ध्या तक ,
जगमग होने दो दिनकर को ।
जीवन की ख़ातिर खोने दो जीवन को ।
जीवन का बस होने दो जीवन को ।
सतत क्रम यही नियत नियति का ,
नियत निरन्तर होने दो नियति को ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
देख रहा था वो मुड़ मुड़कर ।
पास नही जब कुछ खोने को ,
मांग रहा कुछ मुझसे देने को ।
कैसे दूँ मैं उत्तर कुछ जीवन पश्नो के ,
बे-उत्तर रहने दो कुछ जीवन प्रश्नों को ।
ढल रही है अब स्वर्णिम सन्ध्या ,
खुश होने दो भोर तले दिनकर को ।
ले मौन चला पथ पर यह जीवन ,
होने दो मस्त किलोल जीवन को ।
इस सन्ध्या से उस सन्ध्या तक ,
जगमग होने दो दिनकर को ।
जीवन की ख़ातिर खोने दो जीवन को ।
जीवन का बस होने दो जीवन को ।
सतत क्रम यही नियत नियति का ,
नियत निरन्तर होने दो नियति को ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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