रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 638/642

638
रख जरा तू सामने आईने अपने ।
तू पूछ जरा खुद से मायने अपने ।
पाएगा खुद में ही खुद आपको ,
अपनी निगाहों के सामने अपने ।
....
639
अश्क़ निग़ाहों में क्यों इश्क़ पलता है ।
  चाँद क्यों रात के दामन में मचलता है ।
  गिरता है क़तरा शबनम का जमीं जो ,
  क्यों जमाना कदम रौंद उसे चलता है ।
....
640

 मांगना नही तु ,अपना दिया ।
 भूल जा देकर तु ,कभी दिया ।
 फैलता है उजाला,जलता दिया ।
 जो दिया बहुत ,उसने दिया ।
.....
641
मंज़िल का कोई पता नही ।
 मैं राहों पे पर थका नही ।
चलता चला राह पथिक मैं ,
राहों से मेरी कोई ख़ता नही ।
....
642
मुक़ाम से मुक़ाम गढ़े चलो ।
पथिक बढे चलो बढ़े चलो ।
रात से साथ के सिंगार से ,
नित नवल भोर मढ़े चलो ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@..


डायरी 6

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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