रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 686/689

686
चल चला चल मचल चल ,
रंगों की छटा सा बदल चल ।
न रहे रिक्त कही भी कोई,
बूंद बूंद सा तू पिघल चल ।
.......
687
मैं लिख गया कुछ ।
वक़्त सँग टिक गया कुछ ।
चाहतों की हसरत में ,
अश्क़ पलकों पे रुक गया कुछ ।
... ...
688
कुछ यक़ी के परिंदे ।
कुछ ख़ौफ़ के दरिंदे ।
उम्र चली  तन्हा सी ,
ले हालात के चरिंदे ।
... 
689
कोई कभी हम से ख़ुसूस कर ले ।
लम्हा लम्हा हमे महसूस कर ले ।
कह गए नज़्म शाम-ऐ-महफ़िल में ,
साक़ी-ऐ-रिंद ज़ज्बात ख़ुलूस कर ले ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@...

ख़ुलूस /निश्छलता/ सच्चाई

खुसूसियत/ विशेषता/मेल/सौहार्द।




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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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