रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 681/684

681
मेरा पता यही ,के- मैं बे-पता नही ।
हूँ जरा ग़ुम, मैं मगर गुमशुदा नही ।
न खोजना भीड़ में, तुम दुनियाँ की ,
रखना याद दिल में, मैं मिलूँ वहीं ।
......
682
मैं आईने सा हुनर, पा, न पाया ।
जो सामने आया, दिखा, न पाया ।
मैं छुपाता रहा, अक़्स, दुनियाँ के ,
मैं ख़ुद को ख़ुद में, छिपा, न पाया ।
....
683
शाम-ऐ-महफ़िल अधूरी सी रही ।
नज़्र-ऐ-शिरक़त जरूरी सी रही ।
पढ़ता रहा नज़्म बड़े अदब से,
लफ्ज़-ऐ-रियाज दूरी सी रही ।
... ..
684
तू चला चल आसमां तक जमीं से ।
है नहीं राह तेरी यहीं तक यहीं से ।
लिखकर सितारों से हसीं पैगाम ,
जीत ले तू हर मुक़ाम जिंदगी से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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