रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 649/654

649
एक मुसलसल, सिलसिला चाहिए ।
अल्फ़ाज़ लफ्ज़ का, सिला चाहिए  ।
 फेर ले नजर कोई   ,   शराफत से ,
 ऐसी कोई भी , नही गिला चाहिए ।
.
गिला/निंदा/ उलाहना
...
650
हार कर भी न हार हो ।
रिश्तों का यूँ व्यवहार हो ।
 मिलते रहे बे-मोल ही ,
न कही कोई व्यापार हो ।
....
651

जीवन का ऐसा ताना है ।
उधड़ा सा हर बाना है ।
 सहज रहा तार तार को ,
पोर पोर ख़ुद को पाना है ।
...
 सहज चल तार तार को ,
पोर पोर खुद को जाना है ।
....
652
 मैं झुकता गया दूब सा ।
 मैं तमाशा रहा खूब सा ।
 है निग़ाहों में तल्खियाँ ,
 यूँ तो हूँ मैं मेहबूब सा ।
....
653
रिश्तों की यही निशानी है ।
बनती बिगड़ती कहानी है ।
तोल रहे कुछ , मोल से ,
बीत रही ये जिंदगानी है ।
... 
654
हो गई रंगीन दुनियाँ,
 यूँ निग़ाहों के सामने ।

रंग बदल, गुजरते गये,
 लोग निग़ाहों के सामने । 

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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