रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 671/675

671
 एक ठहरा हुआ असर सा ।
 भागते से , इस शहर सा ।
 कुछ जीतने की चाहत में ,
 चाहतों पे , एक कहर सा ।

672
  वक़्त का कुछ कर्ज़  सा ।
  रहा कही क्यों फ़र्ज़  सा ।
  बदलता ही रहा हर घड़ी ,
  बस रहा इतना ही हर्ज़ सा
.... 
673
क्यों किसी को , ख़ास कहा जाए ।
दिल-ओ-जाँ , पास कहा जाए ।
बदलता है ,करवटें वक़्त भी तो ,
रात को क्यों न , आस कहा जाए ।
...
674
कहाँ कौन पढ़ रहा है किसको ।
यहाँ कौन गढ़ रहा है किसको ।
एक सैलाब है यह वक़्त का ,
जो डुबोने बढ़ रहा है जिसको ।
... 
675
 लोग पढ़ते रहे यूँ ही ।
आह भरते रहे यूँ ही ।
डूबे हर्फ़ हर्फ़ अश्क़ में ,
दरिया बहते रहे यूँ ही ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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