रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 690/696

690

कह गया बात वो, 
           ईमान से ईमान की ।
नही कोई जात, 
           इंसान की पहचान की ।
बदलता है रंग , 
          अक्सर खुदगर्ज़ी के वो ,
है नही फ़िक़्र उसे , 
          क्यों उस जहान की ।
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691

यूँ बदलता रंगत , इंसान गया ।
जो बदलता  , अहसान गया ।

रह गया दौर  ,   ख़ुदगर्ज़ी का ,
क्यूँ जात इंसां से,  ईमान गया ।
.... 
692

इस दौर-ऐ-जफ़ा में,
    तुम वफ़ा कहाँ से लाओगे ।

तिज़ारत-ऐ-जहां में,
       तुम सफ़ा कहाँ से लाओगे ।

घुला है ज़हर ,
    आब-ओ-हवा में,अब इस क़दर ,

इस क़ायम दुनियाँ में, 
        तुम शफ़ा कहाँ से लाओगे ।

जफ़ा/अन्याय
सफ़ा/साफ/पवित्र
शफ़ा/स्वस्थ
.....
693

न मैं किसी को समझ सका ।
न ही कोई मुझे समझ सका ।
न खरीद सका मैं किसी को ,
न ही मैं कहीं बिक सका ।
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694

जिंदगी संजीद रही ।
 यूँ अपनी ईद रही ।

बदले हालात अस्र से ,
वक़्त की ताकीद रही ।
......
संजीदा/गम्भीर शांत
ताक़ीद/आग्रह

695
है मेरी गुरु सी वो ।
सुधारती है त्रुटि वो ।
सिखा रीत ज़ीवन की ,
सदा संवारती है वो ।
..
696
हाँ , नही कहना सीख लो ।
स्व को , स्वयं से खींच लो ।
"निश्चल" चलो निज भाव से,
  आत्म निवेदित रीत लो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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