रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 697/702

697
संघर्षो से जो पाया व्यर्थ न जाये कभी ।
खुद को दुनियाँ में खोया न जाये कभी ।
जीत चलो तिमिर तले हर उजियारे को ,
उजियारों को तम में ढाला न जाये कभी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
698
मेरे मुस्कुराने की बजह न रही ।
महफिलों में अब अदा न रही ।
ख़ामोश से रहे वो परिंदे सभी ,
मौसम-ऐ-गुल  फ़िज़ा न रही ।
... 
699
फिर ख़ामोश से सभी है ।
जाने क्या रही कमी है ।
यूँ तो असमां है नजर में ,
पैर तले दो गज जमीं है ।
.... 
700
एक मुसलसल, सिलसिला रहा ।
अल्फ़ाज़ लफ्ज़ का, सिला रहा ।
फैरता रहा नजर ,जो शराफत से ,
वो जाने कैसा एक , गिला रहा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


701
 वक़्त की जाने कैसी ये शरारत है ।
आज निग़ाहों को नही मलालत है ।

उजड़ते है घर तूफ़ान से परिंदों के ,
अपनो को नही अपनों की चाहत है ।

है रौनकें जिनसे उसके मयकदे की,
वो साक़ी करती  रिंदो की ज़लालत है ।
.... 
702
फिर दस्तक तूफ़ान से पहले, खामोशी की ।
एक अदा इम्तेहान से पहले, बुत पोशी की ।

जबां है फ़िर मयकदा, एक रात के वास्ते ,
है हर निग़ाह साक़ी-ऐ-रिंद , मदहोशी की ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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