रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 665/670

665

हालात लिखा करता हूँ ।
       असरात लिखा करता हूँ ।

बिखेरकर अल्फ़ाज़ अपने ,
         ज़ज्बात लिखा करता हूँ ।
.---
666
जूझता रहा मैं ,
               हालात के हादसों से ।

गुजरता रहा मैं ,
             वक़्त के रास्तों से ।

कहाँ किसे कहुँ ,
           मैं मंजिल अपनी ,

बा-वास्ता रहा मैं ,
          खुदगर्ज वास्तो से ।
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667

लिखता रहा खत,
            ख़्वाब ख़यालों से ।

पैगाम-ए-इश्क़ ,
         जिंदगी के सवालों से ।

पलटता रहा मैं ,
            जिल्द किताबों की ,

मिलते नही होंसलें ,
             कुछ मिसालों से ।
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668

 वक़्त बड़ा कमज़र्फ हुआ है ।
           जफ़ा भरा हर्फ़ हर्फ़ हुआ है ।

  घुट रहे है अरमान सीनों में ,
            ये सर्द दर्द अब वर्फ़ हुआ है ।
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669
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

 उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
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670
कुछ कतरन है दिन की ।
           रीते रीते से बर्तन सी ।

रीत रहे दिन खाली खाली ,
           रातें है उतरे यौवन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(59)

जफ़ा/ जुल्म 
कमज़र्फ/ ओछा /कमीना

   Blog post 10/11/18

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