रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 703/710

703
दर्प घटा । (कम) 
 मान बढ़ा ।
 क्षोभ छटा ।
 ध्यान घटा ।(घटना)
.. विवेक दुबे"निश्चल"@..

704
स्वयं को स्वयं मान रहा ।
इतना ही अभिमान रहा ।
गढ़ चला इरादे सदियों के ,
दो पल का जो मेहमान रहा ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
705
ज़ीवन भी डरता ज़ीवन से ।
मन ही हरता परिवर्तन से ।
टूटे टांके कुछ आशाओं के ,
उधड़ा ताना अपनी सीवन से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
706
सूरज सा तू चलता चल ।
ताप तले तू जलता चल ।
पा जाये जग उजियारा ,
भोर भरे तू खिलता चल ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

707
लिखता रहा मैं , खुद ही नजर में ।
छुपता रहा मैं ,दुनिया की नजर में ।
सिमेटता रहा मैं , ज़ज्बात जमाने के ,
विखेरता रहा दर्द , अपनी नज़र में ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

708
क्यों खुशियों को आग लगाऊं ।
क्यों कलम तले फिर तप जाऊं ।
कह सुनकर बातें जज़्बातों की ,
क्यों अहसासों में झुलसा जाऊं ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@...
709
तज अहंकार के अहमं को ।
कर अभिभूत हृदय स्वयं को ।

मुक्त हृदय अब चलता मैं ,
उठ स्वार्थ संकुचित घेरे से ।

 साथ शेष सृष्टि सम्बंध राग ,
 झंकृत हो हृदय बीणा तार ।

 शांत चित्त आलोकित मन ,
 स्पंदन सत्यं शिवं सुंदरम ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

710

डमरू घनाक्षरी
शिल्प- 8,8,8,8,
(बिना मात्रा के 4चरण प्रति चरण 32 वर्ण)


तल तक चल कर ,मचल लहर पर ।
 सकल सहज कर ,डट मत तट पर ।

 जब चल हटकर ,  उधर ठहर कर ।
 तब जल भरकर ,सजल नयन कर ।


नभ जल भरकर ,बरसत रज पर ।
सहजत हर कण  , धरकर तन पर ।

नयन सजल कर ,मन दरसन कर ।
जनम सफल कर, भगवत भजकर ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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