रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 659/664

659
असमां भी रुकता है ।
दूर क्षितिज झुकता है ।
कर गुजरने की चाहत में ,
झुककर फिर उठता है ।
.....
660
साँझ तले झुकता है ।
असमां भी थकता है ।
फिर सँवरने की चाह में ,
भोर मिले फिर उठता है ।
..
661
 हर रिश्ता सर्द बड़ा है ।
साँस साँस दर्द भरा है ।
मुड़ती ज़ीवन राहों में , 
सामने फ़र्ज़ खड़ा है ।
....
662
राह जिंदगी ,मुड़ती है कभी कभी ।
आते है साफ़ नज़र , जभी सभी ।
खुलतीं है निगाहें , एक मासूम सी ,
"निश्चल"आते नये जिकर तभी सभी ।
.... 
663
जिंदगी कुछ यूँ उम्दा है ।
अश्क़ पलको पे जिंदा है ।
मचलता है पोर किनारों पे ,
डूबता साहिल पे तन्हा है ।
.... 
664

जिंदगी कुछ यूँ संजीदा है ।
अश्क़ पलको पे पोशीदा है ।
मचलता ख़ुश्क किनारों पर ,
डूबता साहिल पे जरीदा है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

संजीदा /गंभीर /समझदार
पोशीदा /ढंका हुआ/गुप्त/छिपाया हुआ
जरीदा/तन्हा

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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