रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक 676/680

676
गढ़ आस प्रकाश की , 
भोर तले तू आज सी ।
मिट जायें छायाएँ सारी,
जोत जले विश्वास की ।
..... ..
677
ये इश्क़ यूँ गहरा हुआ ।
दर्द निग़ाहों पे ठहरा हुआ ।
हसरतों के असमां पर ,
चाहतों का पहरा हुआ ।
......
678
रीत रहा मन धीरे धीरे ।
बीत रहा तन धीरे धीरे ।
एक सागर की चाहत में ,
सरिता बहती तीरे तीरे ।
......
679
क्युं एक सवाल रहा ।
नज़्र का मलाल रहा ।
लिखता रहा वक़्त को ,
हश्र का न ख़्याल रहा ।
.... 
680

कुछ बांधे बंधन ।
कुछ काटे बंधन ।

जीवन की आशा में,
दग्ध हृदय तपता तन ।

एक साँझ तले ,
मिलता जीवन ।

 तरुवर की छाँया में ,
 शीतल उर "निश्चल"मन ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

(तरुवर-- परमात्मा ब्रम्ह उर -- हृदय)

डायरी 3

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