रविवार, 14 अप्रैल 2019

मुक्तक643/648

643
मैं कुछ अब लिखूँ कैसे।
ऐसे लिखूँ या लिखूँ बैसे ।
घायल है पग पायल से ,
थिरकन सँग टिकूँ कैसे ।
...
644
अल्फ़ाज़ , कलम पिरोता गया ।
पाकर कुछ , कुछ खोता गया ।
कहकर बात , वक़्त से वक़्त की ,
यूँ बे-वक़्त , वक़्त का होता गया ।
....
645
वो क्यों पहचान सा बना है ।
जो दुश्मन जान सा बना है ।
सुनाता है वो किस्से अपने ,
वो क्यों  गुमान सा बना है ।
...
646

 जीत चल फिर आज से ।
संग्राम कर फिर आज से ।
साहस गढ़ तू संकल्प का ,
पुरुषार्थ भर फिर आज से ।
....
 647
जीत है कभी हार है ।
ज़िंदगी एक सिंगार है ।
बंधी प्रीत की डोर से ,
यह नही प्रतिकार है ।
....
648
वो पहचान अधूरी है ।
जिसमे पहचान जरूरी है ।
उबला न सागर जल से ,
समा रहा वर्षा पूरी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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