शनिवार, 30 दिसंबर 2017

वो लालसा

वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
 सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
 लालच में आकर हमने जिसको ।
 उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
  ....
कर सांठ गांठ अपनो से वो।
 खेले अपनो के सपनो से वो ।
 दिखा मधुर दिवा स्वप्न सलोने ,
 कहते हमसे अपना होने को वो ।
  ....
जो जीतता है वो इतिहास लिखता है।
 सत्य इतिहास यूँ ही बार बार मिटता है।
 तोड़ता है कलम कानून फैसले के बाद,
 जो दिखता है कानून तो वो ही लिखता है ।
   ....
राजनीति के पटल पर,
आज कुछ नया हो गया।
 न बन सका जो पति कभी,
 आज देश का पिता हो गया ।
   ....
सह रहे सहते आये है।
सह लेंगे सहते जाएंगे ।
 हँसकर जख्म मिटायेंगे,
 ज़ख्म नये पाते जाएंगे ।
...
न जाने कैसा वक़्त हो गया।
 हर जुमला जात पे ठहर गया।
  जंग ज़ुबानी तलवार से पैनी,
 चुनाव मैदान-ऐ- जंग हो गया ।
  हो रहीं पार हदें आज सारी ,
  जुमला विकास कहीं खो गया ।
  भूख सत्ता की है बड़ी भारी,
  भूँखा तो भूखा ही सो गया । 
     ......
हो जाए कुछ तक़रार कर लें थोड़ी राजनीत आज ।
 शब्दों को पकड़ें लपक लपक तोड़ें मरोड़ें झपट झपट।
 मौसम छाया चुनाव का मत की उड़ी फुहार ।
  आरोपों की हो बरसात जीतें या हो जाए हार ।
  ...
कानून सोता रहा देश रोता रहा ।
 सुनाया फरमान जैसे कोई अहसान ।
बुझी  मेहनतकश की चूलें की आँच ।
 सफेद पोश पर न आई आँच । 
 आया सारा धन धना धन वापस ,
 मलते रह गए वो अपने हाथ ।
 काला भी हो गया सफेद सभी ।
पाई उच्चता ओर भी  उच्च ने।
 मध्यम की छीनी बिछौने से खाट 
 निम्न धसा धरातल में 
 दो रोटी को करता दो दो हाथ ।
 अच्छे दिन की एक अच्छी वो शुरुवात ।
   .... 
नालायक भी लायक हो गए।
 पनीर पकौड़े पालक हो गए । 
 राजनीत के ऐसे हालत हो गए ।
 धर्म जाति में सब खो गए। 
  .....
   विरोधाभास ही तो शेष है ।
   अब बचा नही कुछ विशेष है।
   अच्छे दिन की आस में ,
   तड़फता सारा आज देश है ।
        ... विवेक दुबे .....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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