वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
लालच में आकर हमने जिसको ।
उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
....
कर सांठ गांठ अपनो से वो।
खेले अपनो के सपनो से वो ।
दिखा मधुर दिवा स्वप्न सलोने ,
कहते हमसे अपना होने को वो ।
....
जो जीतता है वो इतिहास लिखता है।
सत्य इतिहास यूँ ही बार बार मिटता है।
तोड़ता है कलम कानून फैसले के बाद,
जो दिखता है कानून तो वो ही लिखता है ।
....
राजनीति के पटल पर,
आज कुछ नया हो गया।
न बन सका जो पति कभी,
आज देश का पिता हो गया ।
....
सह रहे सहते आये है।
सह लेंगे सहते जाएंगे ।
हँसकर जख्म मिटायेंगे,
ज़ख्म नये पाते जाएंगे ।
...
न जाने कैसा वक़्त हो गया।
हर जुमला जात पे ठहर गया।
जंग ज़ुबानी तलवार से पैनी,
चुनाव मैदान-ऐ- जंग हो गया ।
हो रहीं पार हदें आज सारी ,
जुमला विकास कहीं खो गया ।
भूख सत्ता की है बड़ी भारी,
भूँखा तो भूखा ही सो गया ।
......
हो जाए कुछ तक़रार कर लें थोड़ी राजनीत आज ।
शब्दों को पकड़ें लपक लपक तोड़ें मरोड़ें झपट झपट।
मौसम छाया चुनाव का मत की उड़ी फुहार ।
आरोपों की हो बरसात जीतें या हो जाए हार ।
...
कानून सोता रहा देश रोता रहा ।
सुनाया फरमान जैसे कोई अहसान ।
बुझी मेहनतकश की चूलें की आँच ।
सफेद पोश पर न आई आँच ।
आया सारा धन धना धन वापस ,
मलते रह गए वो अपने हाथ ।
काला भी हो गया सफेद सभी ।
पाई उच्चता ओर भी उच्च ने।
मध्यम की छीनी बिछौने से खाट
निम्न धसा धरातल में
दो रोटी को करता दो दो हाथ ।
अच्छे दिन की एक अच्छी वो शुरुवात ।
....
नालायक भी लायक हो गए।
पनीर पकौड़े पालक हो गए ।
राजनीत के ऐसे हालत हो गए ।
धर्म जाति में सब खो गए।
.....
विरोधाभास ही तो शेष है ।
अब बचा नही कुछ विशेष है।
अच्छे दिन की आस में ,
तड़फता सारा आज देश है ।
... विवेक दुबे .....
सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
लालच में आकर हमने जिसको ।
उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
....
कर सांठ गांठ अपनो से वो।
खेले अपनो के सपनो से वो ।
दिखा मधुर दिवा स्वप्न सलोने ,
कहते हमसे अपना होने को वो ।
....
जो जीतता है वो इतिहास लिखता है।
सत्य इतिहास यूँ ही बार बार मिटता है।
तोड़ता है कलम कानून फैसले के बाद,
जो दिखता है कानून तो वो ही लिखता है ।
....
राजनीति के पटल पर,
आज कुछ नया हो गया।
न बन सका जो पति कभी,
आज देश का पिता हो गया ।
....
सह रहे सहते आये है।
सह लेंगे सहते जाएंगे ।
हँसकर जख्म मिटायेंगे,
ज़ख्म नये पाते जाएंगे ।
...
न जाने कैसा वक़्त हो गया।
हर जुमला जात पे ठहर गया।
जंग ज़ुबानी तलवार से पैनी,
चुनाव मैदान-ऐ- जंग हो गया ।
हो रहीं पार हदें आज सारी ,
जुमला विकास कहीं खो गया ।
भूख सत्ता की है बड़ी भारी,
भूँखा तो भूखा ही सो गया ।
......
हो जाए कुछ तक़रार कर लें थोड़ी राजनीत आज ।
शब्दों को पकड़ें लपक लपक तोड़ें मरोड़ें झपट झपट।
मौसम छाया चुनाव का मत की उड़ी फुहार ।
आरोपों की हो बरसात जीतें या हो जाए हार ।
...
कानून सोता रहा देश रोता रहा ।
सुनाया फरमान जैसे कोई अहसान ।
बुझी मेहनतकश की चूलें की आँच ।
सफेद पोश पर न आई आँच ।
आया सारा धन धना धन वापस ,
मलते रह गए वो अपने हाथ ।
काला भी हो गया सफेद सभी ।
पाई उच्चता ओर भी उच्च ने।
मध्यम की छीनी बिछौने से खाट
निम्न धसा धरातल में
दो रोटी को करता दो दो हाथ ।
अच्छे दिन की एक अच्छी वो शुरुवात ।
....
नालायक भी लायक हो गए।
पनीर पकौड़े पालक हो गए ।
राजनीत के ऐसे हालत हो गए ।
धर्म जाति में सब खो गए।
.....
विरोधाभास ही तो शेष है ।
अब बचा नही कुछ विशेष है।
अच्छे दिन की आस में ,
तड़फता सारा आज देश है ।
... विवेक दुबे .....
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