गुरुवार, 12 जुलाई 2018

एक साँझ सदा ढ़लती

रात तले शबनम ढ़लती ।
 क़तरा बन कर  चलती ।

मचल जमीं के दामन में ,
जर्रा जमीं जा मिलती ।

 ज़ीवन की साँसों में भी ,
 एक बात यही मिलती ।

 भोर खिले उजियारों की,
 एक साँझ सदा ढ़लती ।

पा जाने की आशा से ,

 ढ़लती और निकलती ।

   एक रात सुबह संग ,
 "निश्चल" निश्चित मिलती ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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