रात तले शबनम ढ़लती ।
क़तरा बन कर चलती ।
मचल जमीं के दामन में ,
जर्रा जमीं जा मिलती ।
ज़ीवन की साँसों में भी ,
एक बात यही मिलती ।
भोर खिले उजियारों की,
एक साँझ सदा ढ़लती ।
पा जाने की आशा से ,
ढ़लती और निकलती ।
एक रात सुबह संग ,
"निश्चल" निश्चित मिलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
क़तरा बन कर चलती ।
मचल जमीं के दामन में ,
जर्रा जमीं जा मिलती ।
ज़ीवन की साँसों में भी ,
एक बात यही मिलती ।
भोर खिले उजियारों की,
एक साँझ सदा ढ़लती ।
पा जाने की आशा से ,
ढ़लती और निकलती ।
एक रात सुबह संग ,
"निश्चल" निश्चित मिलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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