438
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
आइनों से खुद को मैं छुपाता रहा ।
बस अक़्स उसको मैं दिखाता रहा ।
छुपाकर सलवटें अपने चेहरे की ,
आइनों से निग़ाह मैं मिलाता रहा ।
....
440
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
441
वो संग जो आज भी मौन थे ।
निगाहों में उनकी कुछ बोल थे ।
कहते थे वक़्त के सितम को ,
हर ज़ुल्म ही जिनके मोल थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
442
समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
....
443
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
.....
444
काश वक़्त से मशविरा हुआ होता ।
आज वो मेरा नाख़ुदा न हुआ होता ।
न डूबती कश्ती यूँ किनारों पर ,
एक साहिल भी मेरा हुआ होता ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
आइनों से खुद को मैं छुपाता रहा ।
बस अक़्स उसको मैं दिखाता रहा ।
छुपाकर सलवटें अपने चेहरे की ,
आइनों से निग़ाह मैं मिलाता रहा ।
....
440
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
441
वो संग जो आज भी मौन थे ।
निगाहों में उनकी कुछ बोल थे ।
कहते थे वक़्त के सितम को ,
हर ज़ुल्म ही जिनके मोल थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
442
समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
....
443
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
.....
444
काश वक़्त से मशविरा हुआ होता ।
आज वो मेरा नाख़ुदा न हुआ होता ।
न डूबती कश्ती यूँ किनारों पर ,
एक साहिल भी मेरा हुआ होता ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3
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