गुरुवार, 12 जुलाई 2018

कुछ मुक्तक 438/444

438
लज़्ज़ता छोड़ निर्लज़्ज़ता ओढ़ी ।
शर्म हया भी रही नही जरा थोड़ी ।
 रहे नही शिष्ट आचरण अब कुछ ,
 अहंकार की चुनर कुछ ऐसी ओढ़ी ।
....
439
  आइनों से खुद को मैं छुपाता रहा ।
बस अक़्स उसको मैं दिखाता रहा ।
छुपाकर सलवटें अपने चेहरे की ,
 आइनों से निग़ाह मैं मिलाता रहा ।
....
 440
किस्मत के खेल खिलाती है जिंदगी ।
किताबों में नही वो दिखती है जिंदगी ।
चलने की चाह में ही हर दम  ,
दुनियाँ की ठोकरें खिलाती है जिंदगी ।
......
441
 वो संग जो आज भी मौन थे ।
निगाहों में उनकी कुछ बोल थे ।
 कहते थे वक़्त के सितम को ,
 हर ज़ुल्म ही जिनके मोल थे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
442
  समंदर आँखों का नम था ।
 काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
 होंसला साहिल बे-दम था ।
.... 
443
आज इंसान ग़ुम हो रहा है ।
 इतना मज़लूम हो रहा है ।
खा रहे वो कसमें ईमान की ,
 यूँ ईमान का खूं हो रहा है ।
 ..... 

444
काश वक़्त से मशविरा हुआ होता ।
आज वो मेरा नाख़ुदा न हुआ होता ।
न डूबती कश्ती यूँ किनारों पर ,
एक साहिल भी मेरा हुआ होता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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